कैलेंडर का इतिहास
विक्रम संवत
हिन्दू
पंचांग में समय गणना की प्रणाली का नाम है। यह संवत ५७ ईपू आरम्भ होती है।
इसका प्रणेता सम्राट विक्रमादित्य को माना जाता है। कालिदास इस महाराजा के
एक रत्न माने जाते हैं।बारह महीने का एक वर्ष और सात दिन का एक सप्ताह रखने का प्रचलन विक्रम संवत से ही शुरू हुआ | महीने का हिसाब सूर्य व चंद्रमा की गति पर रखा जाता है। यह बारह राशियाँ बारह सौर मास हैं। जिस दिन सूर्य जिस राशि में प्रवेश करता है उसी दिन की संक्रांति होती है। पूर्णिमा के दिन, चंद्रमा जिस नक्षत्र में होता है। उसी आधार पर महीनों का नामकरण हुआ है।
प्रस्तुत है भारतीय हिन्दू कैलेंडर का इतिहास
इस पंचांग में हर
प्रकार के ग्रहों की गणना की गई है। तो क्यों न इस खास मौके पर इतिहास के
पन्नों को पलटें और पता करें आखिर ये पंचांग कहां से आया। इस सवाल का जवाब
दे रहे हैं देहरादून के ज्योतिषाचार्य पंडित दयानंद शास्त्री।
हमारा राजकीय कैलेंडर ईसवी सन् से चलता है इसलिये नयी पीढ़ी तथा बड़े शहरों
पले बढ़े लोगों में बहुत कम लोगों यह याद रहता है कि भारतीय संस्कृति और
और धर्म में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाला विक्रम संवत् देश के प्रत्येक समाज
में परंपरागत ढंग मनाया जाता है। देश पर अंग्रेजों ने बहुत समय तक राज्य
किया फिर उनका बाह्य रूप इतना गोरा था कि भारतीय समुदाय उस पर मोहित हो गया
और शनैः शनैः उनकी संस्कृति, परिधान, खानपान तथा रहन सहन अपना लिया भले ही
वह अपने देश के अनुकूल नहीं था।
अंग्रेज चले गये पर उनके मानसपुत्रों की कमी नहीं है। सच तो यह है कि
अंग्रेज वह कौम है जिसको बिना मांगे ही दत्तक पुत्र मिल जाते हैं जो भारतीय
माता पिता स्वयं उनको सौंपते हैं। सच तो यह है कि विक्रम संवत् ही हमें
अपनी संस्कृति की याद दिलाता है और कम से कम इस बात की अनुभूति तो होती है
कि भारतीय संस्कृति से जुड़े सारे समुदाय इसे एक साथ बिना प्रचार और
नाटकीयता से परे होकर मनाते हैं।
दुनिया का लगभग प्रत्येक कैलेण्डर सर्दी के बाद बसंत ऋतू से ही प्रारम्भ
होता है, यहाँ तक की ईस्वी सन बाला कैलेण्डर (जो आजकल प्रचलन में है) वो भी
मार्च से प्रारम्भ होना था। इस कलेंडर को बनाने में कोई नयी खगोलीये गणना
करने के बजाये सीधे से भारतीय कैलेण्डर (विक्रम संवत) में से ही उठा लिया
गया था। आइये जाने क्या है इस कैलेण्डर का इतिहास:
दुनिया में सबसे पहले तारों, ग्रहों, नक्षत्रो आदि को समझने का सफल प्रयास
भारत में ही हुआ था, तारों, ग्रहों, नक्षत्रो, चाँद, सूरज......आदि की गति
को समझने के बाद भारत के महान खगोल शास्त्रीयो ने भारतीय कलेंडर (विक्रम
संवत) तैयार किया, इसके महत्व को उस समय सारी दुनिया ने समझा। लेकिन यह
इतना अधिक व्यापक था कि - आम आदमी इसे आसानी से नहीं समझ पाता था, खासकर
पश्चिम जगत के अल्पज्ञानी तो बिल्कुल भी नहीं।
किसी भी विशेष दिन, त्यौहार आदि के बारे में जानकारी लेने के लिए विद्वान्
(पंडित) के पास जाना पड़ता था। अलग अलग देशों के सम्राट और खगोलशास्त्री भी
अपने अपने हिसाब से कैलेण्डर बनाने का प्रयास करते रहे। इसके प्रचलन में
आने के 57 वर्ष के बाद सम्राट आगस्तीन के समय में पश्चिमी कैलेण्डर (ईस्वी
सन) विकसित हुआ। लेकिन उसमें कुछ भी नया खोजने के बजाए, भारतीय कैलेंडर को
लेकर सीधा और आसान बनाने का प्रयास किया था। पृथ्वी द्वारा 365/366 में
होने वाली सूर्य की परिक्रमा को वर्ष और इस अवधि में चंद्रमा द्वारा पृथ्वी
के लगभग 12 चक्कर को आधार मान कर कैलेण्डर तैयार किया और क्रम संख्या के
आधार पर उनके नाम रख दिए गए।
पहला महीना मार्च (एकम्बर) से नया साल प्रारम्भ होना था।
1. - एकाम्बर ( 31 )
2. - दुयीआम्बर (30)
3. - तिरियाम्बर (31)
4. -
चौथाम्बर (30)
5.- पंचाम्बर (31)
6.- षष्ठम्बर (30)
7. - सेप्तम्बर (31)
8.- ओक्टाम्बर (30)
9.- नबम्बर (31)
10.- दिसंबर ( 30 )
11.- ग्याराम्बर
(31)
12.- बारम्बर (30 / 29 ), निर्धारित किया गया।
सेप्तम्बर में सप्त अर्थात सात, अक्तूबर में ओक्ट अर्थात आठ, नबम्बर में नव
अर्थात नौ, दिसंबर में दस का उच्चारण महज इत्तेफाक नहीं है लेकिन फिर
सम्राट आगस्तीन ने अपने जन्म माह का नाम अपने नाम पर आगस्त (षष्ठम्बर को
बदलकर) और भूतपूर्व महान सम्राट जुलियस के नाम पर - जुलाई (पंचाम्बर) रख
दिया।
इसी तरह कुछ अन्य महीनों के नाम भी बदल दिए गए। फिर वर्ष की शरुआत ईसा मसीह
के जन्म के 6 दिन बाद (जन्म छठी) से प्रारम्भ माना गया। नाम भी बदल इस
प्रकार कर दिए गए थे।
जनवरी (31), फरबरी (30/29), मार्च (31), अप्रैल (30), मई (31), जून (30),
जुलाई (31), अगस्त (30), सितम्बर (31), अक्टूबर (30), नवम्बर (31), दिसंबर (
30) माना गया।
फिर अचानक सम्राट आगस्तीन को ये लगा कि - उसके नाम वाला महीना आगस्त छोटा
(30 दिन) का हो गया है तो उसने जिद पकड़ ली कि - उसके नाम वाला महीना 31
दिन का होना चाहिए।
राजहठ को देखते हुए खगोल शास्त्रीयों ने जुलाई के बाद अगस्त को भी 31 दिन
का कर दिया और उसके बाद वाले सेप्तम्बर (30), अक्तूबर (31), नबम्बर (30),
दिसंबर ( 31) का कर दिया। एक दिन को एडजस्ट करने के लिए पहले से ही छोटे
महीने फरवरी को और छोटा करके (28/29) कर दिया गया।
आम तौर पर लोग नकली कैलेण्डर के अनुसार नए साल पर, फ़ालतू का हंगामा करते
हैं। जबकि हमें इस पूर्णरूप से वैज्ञानिक और भारतीय कलेंडर (विक्रम संवत)
के अनुसार आने वाले नव वर्ष प्रतिपदा पर, समाज उपयोगी सेवाकार्य करते हुए
नवबर्ष का स्वागत करना चाहिये।
हिंदू धर्म की तरह ही हर धर्म में नया साल मनाया जाता है। लेकिन इसका समय
भिन्न-भिन्न होता है तथा तरीका भी। किसी धर्म में नाच-गाकर नए साल का
स्वागत किया जाता है तो कहीं पूजा-पाठ व ईश्वर की आराधना कर। आप भी जानिए
किस धर्म में नया साल कब मनाया जाता है-
हिंदू नव वर्ष: हिंदू नव वर्ष का प्रारंभ चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा (इस
बार 23 मार्च) से माना जाता है। इसे हिंदू नव संवत्सर या नव संवत भी कहते
हैं। ऐसी मान्यता है कि भगवान ब्रह्मा ने इसी दिन से सृष्टि की रचना
प्रारंभ की थी। इसी दिन से विक्रम संवत के नए साल का आरंभ भी होता है। इसे
गुड़ी पड़वा, उगादि आदि नामों से भारत के अनेक क्षेत्रों में मनाया जाता
है।
इस्लामी नव वर्ष: इस्लामी कैलेंडर के अनुसार मोहर्रम महीने की पहली तारीख
को मुसलमानों का नया साल हिजरी शुरू होता है। इस्लामी या हिजरी कैलेंडर एक
चंद्र कैलेंडर है, जो न सिर्फ मुस्लिम देशों में इस्तेमाल होता है बल्कि
दुनियाभर के मुसलमान भी इस्लामिक धार्मिक पर्वों को मनाने का सही समय जानने
के लिए इसी का इस्तेमाल करते हैं।
ईसाई नव वर्ष: ईसाई धर्मावलंबी 1 जनवरी को नव वर्ष मनाते है। करीब 4000
वर्ष पहले बेबीलोन में नया वर्ष 21 मार्च को मनाया जाता था जो कि वसंत के
आगमन की तिथि भी मानी जाती थी । तब रोम के तानाशाह जूलियस सीजर ने ईसा
पूर्व 45वें वर्ष में जब जूलियन कैलेंडर की स्थापना की, उस समय विश्व में
पहली बार 1 जनवरी को नए वर्ष का उत्सव मनाया गया। तब से आज तक ईसाई धर्म के
लोग इसी दिन नया साल मनाते हैं। यह सबसे ज्यादा प्रचलित नव वर्ष है।
सिंधी नव वर्ष: सिंधी नव वर्ष चेटीचंड उत्सव से शुरु होता है, जो चैत्र
शुक्ल दिवतीया को मनाया जाता है।
सिंधी मान्यताओं के अनुसार इस दिन भगवान
झूलेलाल का जन्म हुआ था जो वरुणदेव के अवतार थे।
सिक्ख नव वर्ष: पंजाब में नया साल वैशाखी पर्व के रूप में मनाया जाता है।
जो अप्रैल में आती है।
सिक्ख नानकशाही कैलेंडर के अनुसार होला मोहल्ला
(होली के दूसरे दिन) नया साल होता है।
जैन नव वर्ष: ज़ैन नववर्ष दीपावली से अगले दिन होता है। भगवान महावीर
स्वामी की मोक्ष प्राप्ति के अगले दिन यह शुरू होता है। इसे वीर निर्वाण
संवत कहते हैं।
पारसी नव वर्ष: पारसी धर्म का नया वर्ष नवरोज के रूप में मनाया जाता है।
आमतौर पर 19 अगस्त को नवरोज का उत्सव पारसी लोग मनाते हैं। लगभग 3000 वर्ष
पूर्व शाह जमशेदजी ने पारसी धर्म में नवरोज मनाने की शुरुआत की। नव अर्थात्
नया और रोज यानि दिन।
हिब्रू नव वर्ष: हिब्रू मान्यताओं के अनुसार भगवान द्वारा विश्व को बनाने
में सात दिन लगे थे । इस सात दिन के संधान के बाद नया वर्ष मनाया जाता है ।
यह दिन ग्रेगरी के कैलेंडर के मुताबिक 5 सितम्बर से 5 अक्टूबर के बीच आता
है।
नव संवत्सर
'विक्रम संवत 2074' का शुभारम्भ 28 मार्च, सन 2017 को चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से है। पुराणों के अनुसार चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को ब्रह्मा ने सृष्टि निर्माण किया था, इसलिए इस पावन तिथि को नव संवत्सर पर्व के रूप में भी मनाया जाता है। संवत्सर-चक्र के अनुसार सूर्य इस ऋतु में अपने राशि-चक्र की प्रथम राशि मेष में प्रवेश करता है। भारतवर्ष में वसंत ऋतु के अवसर पर नूतन वर्ष का आरम्भ मानना इसलिए भी हर्षोल्लासपूर्ण है, क्योंकि इस ऋतु में चारों ओर हरियाली रहती है तथा नवीन पत्र-पुष्पों द्वारा प्रकृति का नव शृंगार किया जाता है। लोग नववर्ष का स्वागत करने के लिए अपने घर-द्वार सजाते हैं तथा नवीन वस्त्राभूषण धारण करके ज्योतिषाचार्य द्वारा नूतन वर्ष का संवत्सर फल सुनते हैं।शास्त्रीय मान्यता के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि के दिन प्रात: काल स्नान आदि के द्वारा शुद्ध होकर हाथ में गंध, अक्षत, पुष्प और जल लेकर ओम भूर्भुव: स्व: संवत्सर- अधिपति आवाहयामि पूजयामि च इस मंत्र से नव संवत्सर की पूजा करनी चाहिए तथा नववर्ष के अशुभ फलों के निवारण हेतु ब्रह्मा जी से प्रार्थना करनी चाहिए कि 'हे भगवन! आपकी कृपा से मेरा यह वर्ष कल्याणकारी हो और इस संवत्सर के मध्य में आने वाले सभी अनिष्ट और विघ्न शांत हो जाएं।' नव संवत्सर के दिन नीम के कोमल पत्तों और ऋतुकाल के पुष्पों का चूर्ण बनाकर उसमें काली मिर्च, नमक, हींग, जीरा, मिश्री, इमली और अजवायन मिलाकर खाने से रक्त विकार आदि शारीरिक रोग शांत रहते हैं और पूरे वर्ष स्वास्थ्य ठीक रहता है।
नये संवत की शुरुआत
प्राचीन काल में नया संवत चलाने से पहले विजयी राजा को अपने राज्य में रहने वाले सभी लोगों को ऋण-मुक्त करना आवश्यक होता था। राजा विक्रमादित्य ने भी इसी परम्परा का पालन करते हुए अपने राज्य में रहने वाले सभी नागरिकों का राज्यकोष से कर्ज़ चुकाया और उसके बाद चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से मालवगण के नाम से नया संवत चलाया। भारतीय कालगणना के अनुसार वसंत ऋतु और चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि अति प्राचीन काल से सृष्टि प्रक्रिया की भी पुण्य तिथि रही है। वसंत ऋतु में आने वाले वासंतिक 'नवरात्र' का प्रारम्भ भी सदा इसी पुण्य तिथि से होता है। विक्रमादित्य ने भारत की इन तमाम कालगणनापरक सांस्कृतिक परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि से ही अपने नवसंवत्सर संवत को चलाने की परम्परा शुरू की थी और तभी से समूचा भारत इस पुण्य तिथि का प्रतिवर्ष अभिवंदन करता है।दरअसल, भारतीय परम्परा में चक्रवर्ती राजा विक्रमादित्य शौर्य, पराक्रम तथा प्रजाहितैषी कार्यों के लिए प्रसिद्ध माने जाते हैं। उन्होंने 95 शक राजाओं को पराजित करके भारत को विदेशी राजाओं की दासता से मुक्त किया था। राजा विक्रमादित्य के पास एक ऐसी शक्तिशाली विशाल सेना थी, जिससे विदेशी आक्रमणकारी सदा भयभीत रहते थे। ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, कला संस्कृति को विक्रमादित्य ने विशेष प्रोत्साहन दिया था। धंवंतरि जैसे महान वैद्य, वराहमिहिर जैसे महान ज्योतिषी और कालिदास जैसे महान साहित्यकार विक्रमादित्य की राज्यसभा के नवरत्नों में शोभा पाते थे। प्रजावत्सल नीतियों के फलस्वरूप ही विक्रमादित्य ने अपने राज्यकोष से धन देकर दीन दु:खियों को साहूकारों के कर्ज़ से मुक्त किया था। एक चक्रवर्ती सम्राट होने के बाद भी विक्रमादित्य राजसी ऐश्वर्य भोग को त्यागकर भूमि पर शयन करते थे। वे अपने सुख के लिए राज्यकोष से धन नहीं लेते थे।
राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान
पिछले दो हज़ार वर्षों में अनेक देशी और विदेशी राजाओं ने अपनी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं की तुष्टि करने तथा इस देश को राजनीतिक द्दष्टि से पराधीन बनाने के प्रयोजन से अनेक संवतों को चलाया किंतु भारत राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान केवल विक्रमी संवत के साथ ही जुड़ी रही। अंग्रेज़ी शिक्षा-दीक्षा और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के कारण आज भले ही सर्वत्र ईस्वी संवत का बोलबाला हो और भारतीय तिथि-मासों की काल गणना से लोग अनभिज्ञ होते जा रहे हों परंतु वास्तविकता यह भी है कि देश के सांस्कृतिक पर्व-उत्सव तथा राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरु नानक आदि महापुरुषों की जयंतियाँ आज भी भारतीय काल गणना के हिसाब से ही मनाई जाती हैं, ईस्वी संवत के अनुसार नहीं। विवाह-मुण्डन का शुभ मुहूर्त हो या श्राद्ध-तर्पण आदि सामाजिक कार्यों का अनुष्ठान, ये सब भारतीय पंचांग पद्धति के अनुसार ही किया जाता है, ईस्वी सन् की तिथियों के अनुसार नहीं।महीनों के नाम | पूर्णिम के दिन नक्षत्र जिसमें चन्द्रमा होता है |
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चैत्र | चित्रा, स्वाति |
बैशाख | विशाखा, अनुराधा |
जेष्ठ | जेष्ठा, मूल |
आषाढ़ | पूर्वाषाढ़, उत्तराषाढ़, सतभिषा |
श्रावण | श्रवण, धनिष्ठा |
भाद्रपद | पूर्वाभाद्र, उत्तरभाद्र |
आश्विन | अश्विन, रेवती, भरणी |
कार्तिक | कृतिका, रोहणी |
मार्गशीर्ष | मृगशिरा, उत्तरा |
पौष | पुनवर्सु, पुष्य |
माघ | मघा, अश्लेशा |
फाल्गुन | पूर्वाफाल्गुन, उत्तरफाल्गुन, हस्त |
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